जस्टिस एन किरुबाकरण का विदाई संबोधन: सिर्फ दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट होना बाकी देश से अन्याय, रीजनल बेंच भी बनें, ताकि देश के कोने-कोने में न्याय मिल सके

जस्टिस एन किरुबाकरण का विदाई संबोधन: सिर्फ दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट होना बाकी देश से अन्याय, रीजनल बेंच भी बनें, ताकि देश के कोने-कोने में न्याय मिल सके

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चेन्नई14 मिनट पहले

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जस्टिस एन किरुबाकरण का विदाई संबोधन: सिर्फ दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट होना बाकी देश से अन्याय, रीजनल बेंच भी बनें, ताकि देश के कोने-कोने में न्याय मिल सके

मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस एन किरुबाकरण ने विदाई संबोधन में कहा- न्यायपालिका में दिल्ली-मुंबई ही पावर सेंटर

मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एन किरुबाकरण ने कहा है कि सिर्फ दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट होना देश के बाकी लोगों के साथ अन्याय है। गुरुवार को अंतिम कार्यदिवस पर अपने विदाई संबोधन में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में दिल्ली और बॉम्बे ही पावर सेंटर हैं। सुप्रीम कोर्ट में अन्य राज्यों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है।

सीबीआई को चुनाव आयोग की तरह आजादी देने, बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वालों का बंध्याकरण करने और टिक-टॉक पर जल्द बैन जैसी सख्त राय रखने वाले जस्टिस किरुबाकरण ने सुप्रीम कोर्ट से रीजनल बेंच बनाने का आग्रह किया। पढ़िए, उन्होंने और क्या कहा…

आग्रह: जब भी पारिवारिक विवाद आएं तो उन्हें सुलझाने की कोशिश करें, अन्यथा बच्चे शिकार होते हैं
सुप्रीम कोर्ट दिल्ली और उसके करीब रहने वालों के लिए ही नहीं पूरी आबादी के लिए है। ऐसा कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक पक्ष को देखते हुए रीजनल बेंच बनाने का प्रस्ताव खारिज कर दिया था। मुझे उम्मीद है कि माननीय कोर्ट अपने फैसले पर दोबारा विचार करेगा। अगर कोर्ट यह पहल नहीं करता तो केंद्र सरकार को संविधान में अनिवार्य रूप से बदलाव करके रीजनल बेंच बनानी चाहिए ताकि देश के हर कोने में लोगों को न्याय मिल सके।

कुछ लोगों को शिकायत है कि मैं केस के दौरान सख्त नियमों के दायरे में नहीं रहा, कई बार न्यायिक अतिरेक किया। मैं स्वीकारता हूं कि मैंने ऐसा किया, नियमों को दरकिनार कर अपने धर्म का पालन किया। कई बार सख्त नियमों का पालन नैराश्य पैदा करता है। हर केस अद्वितीय होता है और उसे तथ्यों के हिसाब से देखने की जरूरत होती है।

मुझे लगता है कि केस तय करने में चली आ रही परिपाटी को खत्म किया जाना चाहिए। केस की नब्ज पढ़नी पड़ती है और डॉक्टर की तरह उसका सही इलाज कराना होता है। मुझे लगता है बहुत ज्यादा दृष्टांतों में जाने से जज की स्वतंत्रता खत्म हो जाती है।

युवा वकीलों को सुझाव है कि वे प्रैक्टिस में 3 से 5 साल तक वरिष्ठ वकीलों का मार्गदर्शन लें। वरिष्ठ भी अपने बच्चों की तरह उनकी मदद करें। आजकल लॉ कॉलेजों से निकलने वाले युवा ग्रेजुएट बिना बुनियादी ट्रेनिंग के लॉ फर्म शुरू करते हैं, यह समाज और कोर्ट के लिए अच्छा नहीं है। अपने क्लाइंट की बात समझना, जरूरी दस्तावेज लेना और उसे कोर्ट में पेश करना एक कला है, जिसे वे वरिष्ठों से ही सीख सकते हैं। मुझे सबसे ज्यादा संतुष्टि माता-पिता और बच्चों के विवाद सुलझाने में मिली।

बच्चे जिस पीड़ा से गुजरते हैं, उसकी तुलना भी नहीं की जा सकती। 12 साल के करियर में मैंने हजारों समझौते करवाए, मैंने ऐसे बच्चों को पिता से मिलवाया, जिन्होंने 10-12 साल तक उनका चेहरा नहीं देखा था। ये संतुष्टि हजार मामले सुलझाने से बड़ी थी। एकल माता-पिता के बच्चे, उनका व्यवहार और मानसिकता सामान्य नहीं रह सकती।

सिर्फ पति-पत्नी ही नहीं कुछ वकीलों के कारण भी परिवार बिखर रहे हैं। जब भी ऐसे मामले आएं, तो परिवारों को मिलाने की कोशिश करें, अन्यथा इसका शिकार बच्चे हो जाते हैं।’- जस्टिस किरुबाकरण

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