संघ में सुनामी: भागवत के बयान पर संघ के अंदर विरोध के स्वर, क्या गोलवलकर के जमाने में भी RSS की यही सोच थी?

संघ में सुनामी: भागवत के बयान पर संघ के अंदर विरोध के स्वर, क्या गोलवलकर के जमाने में भी RSS की यही सोच थी?

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नई दिल्ली5 मिनट पहलेलेखक: विजय त्रिवेदी

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RSS चीफ मोहन भागवत ने रविवार को ग� - Dainik Bhaskar

RSS चीफ मोहन भागवत ने रविवार को ग�

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के मुसलमानों के साथ हिन्दुओं के रिश्ते पर बयान ने वैचारिक गर्मी पैदा कर दी है। संघ में ही बहुत से लोगों ने इसका विरोध शुरु कर दिया है। इन लोगों का कहना है कि गुरुजी गोलवलकर के जमाने में हिन्दुत्व को लेकर संघ की सोच इससे अलग रही थी।

दरअसल, विवाद की जड़ में संघ प्रमुख डॉ. भागवत का रविवार को गाज़ियाबाद में दिया वह बयान है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘यदि कोई हिंदू कहता है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकता है, तो वह हिंदू नहीं है। गाय एक पवित्र जानवर है, लेकिन जो इसके नाम पर दूसरों को मार रहे हैं, वो हिंदुत्व के खिलाफ हैं। ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए। उन्होंने कहा कि सभी भारतीयों का DNA एक है, चाहे वो किसी भी धर्म का हो’।

भागवत का संघ के भीतर ही विरोध
करीब 50 साल बाद शायद यह हालात फिर से बनते दिख रहे हैं जब संघ प्रमुख के विचार को लेकर संघ के भीतर ही आवाजे उठने लगी हैं। सूत्रों के मुताबिक, विरोध के स्वर खासतौर से नागपुर, असम और पश्चिम बंगाल से आए हैं। असम और पश्चिम बंगाल के चुनावों में संघ ने बहुत काम किया था। असम में तो मुस्लिम बहुल इलाकों में हर बूथ पर 20-20 लोगों की कमेटी बनाई गईं, लेकिन वहां हर बूथ पर 5 से ज्यादा वोट नहीं मिले। बंगाल में भी तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी की ही जीत हुई।

बिना मुसलमानों के हिन्दुत्व अधूरा
मुसलमानों को लेकर भागवत का यह पहला बयान नहीं है। तीन साल पहले सितम्बर 2018 में दिल्ली में 3 दिनों की व्याख्यानमाला में डॉ भागवत ने कमोबेश यही कहा था कि बिना मुसलमानों के हिन्दुत्व अधूरा है और हिन्दुस्तान में रहने वाला हर शख्स हिन्दुस्तानी है। यदि किसी को हिन्दुस्तानी शब्द से आपत्ति हो तो वो भारतीय कहे, उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन संघ में इस बयान के बाद आगे बढ़ने का कोई काम नहीं हुआ। यानी नाराजगी जाहिर भले ही नहीं की गई हो, लेकिन संघ प्रमुख के विचार को स्वीकार नहीं किया गया।

मुसलमानों पर RSS में हमेशा मतभेद रहे संघ विचारक दिलीप देवधर कहते हैं, ‘संघ प्रमख डॉ. भागवत का बयान डॉ. हेडगेवार और देवरस के विचार को आगे बढ़ाने वाला है। विश्वास है कि उन्हें इसमें कामयाबी मिलेगी। गुरुजी गोलवलकर की सोच कुछ अलग रही थी। संघ का इतिहास देखें तो हिन्दुत्व को लेकर RSS में हमेशा से ही मतभेद बने रहे हैं। डॉ. हेडगेवार कहते थे कि हिन्दुस्तान में रहने वाला हिन्दू है। जैसे अमेरिका में अमेरिकन, जर्मनी में जर्मन होता है। वे हिन्दू शब्द से आसक्ति तो नहीं रखते थे, लेकिन दस हज़ार साल पुरानी हिन्दू परम्परा और विचार के साथ चलते थे।

मुस्लिमों का मकसद धर्मान्तरण: गोलवलकर
संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरूजी गोलवलकर ने लिखा था कि भारत का पिछले 1200 साल का इतिहास धार्मिक युद्ध का इतिहास रहा है, जिसमें हिंदुओं को खत्म करने की कोशिश की गई। गोलवलकर मानते थे कि 1200 साल पहले जब से मुस्लिमों ने इस धरती पर कदम रखा है, उनका एकमात्र मकसद पूरे देश का धर्मांतरण करना और उसे अपना गुलाम बनाना रहा है। संघ ने बाद में बंच ऑफ थाट्स में गुरूजी के इन विचारों को खारिज कर दिया।

सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय में भी विरोधाभास
वीर सावरकर मुसलमानों को ताकीद करते हैं कि वे अपने खून में हिंदुओं का खून मिलाएं और अपना हिन्दूकरण करें, तब ही वे सुपात्र हैं हिन्दुस्तान में रहने के लिए। इसके उलट दीनदयाल उपाध्याय हिंदुओं को सलाह देते हैं कि वे मुसलमानों को स्नेह पूर्वक आत्मसात करें।

डॉ भागवत के साथ प्रचारक बने रमेश सिलेदार कहते हैं कि हिंदत्व का मतलब ही सेक्यूलर होना है, तो इसके लिए अलग से बार-बार जोर देने की आवश्यकता नहीं है, इससे कार्यकर्ता में कन्फ्यूजन पैदा होता है।

देवरस ने मुस्लिमों के लिए RSS को खोलने की दलील दी थी
मुसलमानों को लेकर सबसे अहम चर्चा तीसरे संघ प्रमुख बालासाहब देवरस के वक्त हुई। मुसलमानों और संघ के सवाल पर 1977 में RSS की प्रतिनिधि सभा में बड़ी बहस हुई थी। प्रतिनिधि सभा में बाला साहब देवरस का रुख था कि RSS को मुसलमानों के लिए खोलना चाहिए, लेकिन यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे बहुत से नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया।

देवरस को सलाह मिली थी- नया RSS बना लीजिए
प्रतिनिधि सभा से पहले भी दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बालासाहब देवरस से सवाल पूछा गया था कि क्या संघ मुसलमानों के लिए अपने दरवाजे खोलने जा रहा है? जवाब में देवरस ने कहा था, ‘सैद्धान्तिक रूप से हमने यह स्वीकार किया है कि उपासना पद्धति अलग होने के बावजूद मुसलमान भी राष्ट्र जीवन में समरस हो सकते हैं। उन्हें होना भी चाहिए।

देवरस के फैसले पर तब महाराष्ट्र के RSS प्रमुख के बी लिमये ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए एक चिट्ठी लिखी। इसमें उन्होंने लिखा, ‘आपको RSS के सरसंघचालक का वह आसन दिया गया, जिसपर कभी डॉ. हेडगेवार बैठे थे। कृपा करके उसी संघ को चलाए और उसके आगे बढ़ाने का रास्ता तैयार कीजिए। उसे बदलने की कोशिश मत कीजिए। आपको लगता है कि बदलाव जरूरी है तो फिर अपने लिए एक नया RSS बना लीजिए। हिंदुओं को संगठित करने को प्रतिबद्ध डॉक्टर जी के RSS को हमारे लिए छोड़ दीजिए। अगर आपने इस RSS को बदला तो फिर ऐसे संघ से मैं कोई रिश्ता नहीं रख सकूँगा।’ इसके बावजूद देवरस ने रास्ता नहीं बदला और अपनी कोशिशें जारी रखी।

सबका साथ,सबका विकास और सबका विश्वास
देवरस के बाद संघ प्रमुख केएस सुदर्शन के नेतृत्व में साल 2002 में मुसलिम राष्ट्रीय मंच की शुरुआत हुई, इसके मार्ग निर्देशक इन्द्रेश कुमार हैं,लेकिन संघ खुद को इससे थोड़ा दूर ही रखता है। यहां मुसलमानों को साथ लेने की कोशिश हो रही है।

प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 का चुनाव जीतने के बाद बीजेपी संसदीय दल की पहली बैठक में कहा था कि सबका साथ-सबका विकास के साथ सबका विश्वास जीतना भी ज़रुरी है। यह अलग बात है कि बीजेपी सरकारों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व आटे में नमक जितना भी नहीं है। संघ विरोधियों का कहना है मुसलमानों पर RSS की बात हाथी के दांत जैसी है यानी खाने के और, दिखाने के और.. तो फिर भागवत किस कान्स्टीट्यूएन्सी की तरफ देख रहे हैं।

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