भास्कर एक्सप्लेनर: असम और मिजोरम ही नहीं देश में कुल 17 राज्य अपने पड़ोसियों से सीमा के लिए कर रहे हैं संघर्ष; जानिए इनके बारे में सबकुछ
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28 मिनट पहलेलेखक: रवींद्र भजनी
असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद हिंसक हो गया है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्वा सरमा के खिलाफ मिजोरम सरकार ने एफआईआर दर्ज कराई है। 5 पुलिसकर्मियों की जान जा चुकी है। केंद्र भी इस सीमा विवाद को सुलझाने के लिए सक्रिय है। पर असम का सिर्फ मिजोरम से सीमा विवाद नहीं है। उससे अलग हुए मेघालय, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश भी उससे जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि राज्यों के बीच सीमा विवाद सिर्फ पूर्वोत्तर में ही हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्य भी अपने पड़ोसियों से सीमा को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। इसमें महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच बेलगाम को लेकर विवाद तो तकरीबन हर साल सुर्खियों में आता है। इसी तरह उत्तरप्रदेश और बिहार का जमीन विवाद भी अक्सर हिंसक संघर्ष में बदलता है। भारत के 17 राज्यों का अपने पड़ोसियों से सीमा विवाद है।
पूर्वोत्तर के राज्यों में सीमा विवाद अंग्रेजों के जमाने के हैं। जमीन किस रियासत के पास थी, इसे एक से ज्यादा बार डिफाइन किया गया है। इस वजह से राज्य अपनी सहूलियत से नियम मान रहे हैं। पर महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के बीच के विवाद भाषाई हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार का विवाद तो प्राकृतिक है। हर साल बारिश में गंगा अपने बहने का रास्ता बदलती है और विवाद नई जगह शिफ्ट हो जाता है। आइए जानते हैं, इन विवादों के बारे में
असम-मिजोरम का सीमा विवाद 100 साल से पुराना
विवादः 819.15 वर्ग किमी के जंगल। असम के जंगलों पर मिजोरम दावा करता है।
कब सेः 1950 से। ब्रिटिश राज में 1875 में इनर लाइन एग्रीमेंट से सीमा तय हुई थी। 1933 में अंग्रेजों ने इसे बदल दिया। अब 1875 का एग्रीमेंट मानें या 1933 का, यह विवाद है।
बैकग्राउंडः असम से अलग होकर मिजोरम 1972 में केंद्रशासित प्रदेश और 1987 में राज्य बना। दोनों राज्यों की सीमा 164.6 किमी लंबी है। मौजूदा बॉर्डर नॉर्थ-ईस्टर्न एरिया (रीऑर्गेनाइजेशन) एक्ट 1971 के तहत तय हुई थी। पर मिजोरम इसे नहीं मानता, क्योंकि इसे 1933 के नोटिफिकेशन के आधार पर तय किया है।
मिजोरम कहता है कि ब्रिटिश इंडिया ने 1875 में इनर लाइन नोटिफिकेशन के तहत जो बॉर्डर तय की थी, उसे मान्यता दी जाए। असम का कहना है कि 1875 का इनर लाइन नोटिफिकेशन सिर्फ प्रशासनिक उद्देश्य से था, उसे कछार (असम) और लुशाई हिल्स (मिजोरम) की सीमा नहीं माना जा सकता।
समाधान की कोशिशें: 1950 में लुशाई हिल्स (मिजोरम) डिस्ट्रिक्ट और असम के बीच बॉर्डर तय करने की कोशिश हुई थी, पर मिजोरम के कुछ लोगों ने असम सर्वे डिपार्टमेंट को आग लगा दी और काम अटक गया। 1994 में पहली बार बॉर्डर विवाद उठा, जब मिजोरम ने असम की रिजर्व फॉरेस्ट पर कब्जे की कोशिश का विरोध किया। इसके बाद 2006, 2018, 2020 और 2021 में इस विवाद पर हिंसा हुई।
मौजूदा स्थितिः केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 9 जुलाई 2021 को दोनों राज्यों के मुख्य सचिवों को बुलाया था, पर बातचीत आगे नहीं बढ़ी। 2020 से पहले की स्थिति को कायम रखने के असम के प्रपोजल पर मिजोरम ने विचार के लिए वक्त मांगा है।
असम-नगालैंडः सुप्रीम कोर्ट से ही निकलेगा सुलह का रास्ता
विवादः 434 किमी लंबी बॉर्डर है। नगालैंड 10 रिजर्व फॉरेस्ट की 12,488 वर्ग किमी जमीन पर दावा करता है।
कब सेः 1965 से। नगा टेरिटरी का हिस्सा रहे इलाकों पर नगालैंड का दावा है।
बैकग्राउंडः नगालैंड को 1963 में असम से निकालकर अलग राज्य बनाया गया। तब से ही असम के गोलाघाट और जोरहट जिलों व नगालैंड के वोखा और मोकोकचुंग जिलों के इलाकों पर विवाद है। 1962 में स्टेट ऑफ नगालैंड एक्ट बना और इसमें 1925 के नोटिफिकेशन के आधार पर सीमा तय की गई। नगालैंड चाहता है कि नॉर्थ कछार और नाउगोंग (नागौव) जिलों में नगा-आदिवासियों और नगा हिल्स का हिस्सा रहे इलाकों को असम से अलग करना चाहिए। 1965 में सीमा विवाद नए रूप में सामने आया और अब भी कायम है। 1968, 1979, 1985 और 2014 में इस मुद्दे पर हिंसा हुई थी।
समाधान की कोशिशें: 1968 के विवाद के बाद 1971 में जस्टिस केवीके सुंदरम कमेटी बनी, जिसकी सिफारिश पर असम और नगालैंड ने चार एग्रीमेंट किए। इसके बाद भी असम के जंगलों पर नगालैंड ने कब्जा किया और 1979 में हिंसा भी हुई। 1985 में सीमा विवाद सुलझाने के लिए शास्त्री कमीशन बना, पर उसने भी सुलझाने के बजाय विवाद को और उलझा दिया।
मौजूदा स्थितिः सितंबर 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने सीमा विवाद पर असम की याचिका पर मध्यस्थता का रास्ता सुझाया, पर कोशिश नाकाम रहने पर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू की। असम के गवाहों की सुनवाई पूरी होने वाली थी, पर महामारी की वजह से काम अटक गया। इसके बाद नगालैंड का पक्ष सुना जाएगा।
असम-अरुणाचलः दोनों के इलाकों में हो रहा अतिक्रमण
विवादः असम के 1,000 वर्ग किमी मैदानी क्षेत्र पर अरुणाचल प्रदेश दावा करता है।
कब सेः 1979 से।
बैकग्राउंडः अरुणाचल और असम के बीच 804.1 किमी लंबी बॉर्डर है। 1972 में असम से अलग होकर अरुणाचल अलग राज्य बना। 1972 और 1979 के बीच 396 किमी बॉर्डर तय हो गई थी। पर सर्वे को लेकर विवाद हुआ और काम अटक गया। 1951 के एक नोटिफिकेशन को लागू किया गया, जिसे अरुणाचल स्वीकार नहीं करता।
1951 में केंद्र सरकार ने बोरदोलोई कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने 3,648 किमी मैदानी इलाकों (आज का दरांग, धेमाजी और जोनोई जिले) को असम में ट्रांसफर करने का सुझाव दिया था। अरुणाचल का कहना है कि इस प्रक्रिया में उसकी राय नहीं ली गई। जिन मैदानी इलाकों को असम को दिया गया है, वहां अरुणाचल के लोग रहते हैं और उनके कस्टम और ट्रेडिशनल राइट्स इन इलाकों पर हैं। क्षेत्र के अहोम रूलर्स ने भी इसे मान्यता दी थी।
समाधान की कोशिशें: 1979 में दोनों सरकारों ने एक संयुक्त कमेटी बनाई थी, पर कोई हल नहीं निकला। 1983 में अरुणाचल ने असम को प्रस्ताव भेजकर 956 वर्ग किमी जमीन मांगी। 1989 में असम सरकार ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सिविल मुकदमा दाखिल किया। 2007 में तरुण चटर्जी कमीशन के सामने अरुणाचल ने प्रपोजल में 956 वर्ग किमी से बढ़ाकर 1,119.2 वर्ग किमी क्षेत्र पर दावा किया। 2009 में असम ने यह दावा खारिज किया। कहा जाता है कि चटर्जी कमीशन ने अरुणाचल के 70%-80% क्लेम को स्वीकार किया था।
मौजूदा स्थितिः 2005 से 2014 के बीच दोनों राज्यों में टेंशन रहा। हिंसा भी हुई। इस समय कभी भी स्थिति बिगड़ सकती है। दोनों ही राज्यों ने विवादित क्षेत्र पर अतिक्रमण कर रखा है। असम के बोडो और अरुणाचल के न्याशीज आदिवासी आगे बढ़कर अतिक्रमण कर रहे हैं।
असम-मेघालयः विवाद सुलझाने की जिम्मेदारी केंद्र की
विवादः 2,765 वर्ग किमी क्षेत्र।
कब सेः 1969 से।
बैकग्राउंडः 1970 में असम से मेघालय अलग हुआ और 1972 में पूर्ण राज्य बना। दोनों राज्यों की सीमा 884.9 किमी लंबी है। मेघालय असम रीऑर्गेनाइजेशन (मेघालय) एक्ट 1969 को स्वीकार नहीं करता। दरअसल, यह विवाद भी 1951 के बोरदोलोई कमेटी के निष्कर्षों को लेकर है।
समाधान की कोशिशें: केंद्र सरकार ने 1983 में एक जॉइंट कमेटी बनाई थी। तय हुआ था कि सर्वे ऑफ इंडिया से सर्वे कराया जाएगा, पर विवाद का कोई हल नहीं निकला। जस्टिस वायवी चंद्रचूड की अध्यक्षता में 1985 में कमेटी बनी। उसने 1987 में रिपोर्ट सौंपी। इसमें असम के दावे को कायम रखा। इस बीच, 1991 में सर्वे ऑफ इंडिया ने मैपिंग शुरू की तो 100 किमी बॉर्डर ही मैप हो सकी। तब मेघालय सरकार पीछे हट गई। मेघालय की विधानसभा ने 2011 में बाउंड्री कमीशन बनाने की मांग का प्रस्ताव पारित किया था। 2019 में मेघालय सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी, जो खारिज हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर समाधान के लिए केंद्र से संपर्क करने को कहा है।
मौजूदा स्थितिः बॉर्डर पर विवाद कायम है। सरकारें और लोग एक-दूसरे के क्षेत्र में कब्जे कर रहे हैं। इसे लेकर कभी भी विवाद की स्थिति बन सकती है। केंद्र सरकार ने फिलहाल इस मुद्दे को हल करने के लिए कोई पहल नहीं की है।
कर्नाटक-महाराष्ट्रः मराठी अस्मिता के नाम पर होती रही है हिंसा
विवादः कर्नाटक के 814 गांवों के 7,000 वर्ग किमी क्षेत्र में मराठीभाषी रहते हैं। महाराष्ट्र इस हिस्से को अपने राज्य में मिलाना चाहता है।
कब सेः 1956 से।
बैकग्राउंडः कर्नाटक के बेलागवी (बेलगाम), उत्तर कन्नड़ा, बिदार और गुलबर्गा जिलों के 814 गांवों में मराठीभाषी परिवार रहते हैं। बेलागवी, कारवार और निप्पानी शहरों में भी मराठी बोलने वालों की संख्या अधिक है। बॉम्बे प्रेसिडेंसी में कर्नाटक के विजयपुरा, बेलागवी, धारवाड़ और उत्तर कन्नड़ा जिले आते थे। 1948 में बेलगाम म्युनिसिपालिटी ने जिले को महाराष्ट्र में शामिल करने की मांग की थी।
पर स्टेट्स रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट 1956 के तहत बॉम्बे प्रेसिडेंसी में शामिल रहे बेलगाम और उसकी 10 तालुका को मैसूर स्टेट (1973 में कर्नाटक नाम मिला) में शामिल किया गया। दलील दी गई कि इन जगहों पर 50% से अधिक कन्नड़भाषी थे, पर विरोधी ऐसा नहीं मानते।
समाधान की कोशिशें: अक्टूबर 1966 में बॉर्डर डिस्पुट खत्म करने के लिए पूर्व सीजेआई मेहरचंद महाजन के नेतृत्व में कमीशन बना था। इसने 264 गांवों को महाराष्ट्र में ट्रांसफर करने का सुझाव दिया था। बेलगाम और 247 गांवों को कर्नाटक में रखने की बात भी कही थी। महाराष्ट्र इस रिपोर्ट को नहीं मानता। कर्नाटक की डिमांड के बाद भी केंद्र सरकारों ने कभी भी इस रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया।
मौजूदा स्थितिः 2004 से सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पेंडिंग है। केंद्र सरकार ने महाजन आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने पिछले साल बयान दिया था कि बेलगाम समेत कुछ इलाके कर्नाटक ऑक्युपाइड महाराष्ट्र हैं। इस पर कर्नाटक में हिंसक प्रदर्शन हुए। शांति बहाल करने के लिए कोल्हापुर से बेलगाम का संपर्क तोड़ना पड़ा था।
बेलगाम के मसले पर महाराष्ट्र की सभी पार्टियां एकमत हैं। हर पार्टी के चुनाव एजेंडे में बेलगाम का मुद्दा रहता है। छह दशक से महाराष्ट्र विधानसभा और परिषद के संयुक्त सत्र में गवर्नर के अभिभाषण में बॉर्डर डिस्पुट का जिक्र होता है।
उत्तरप्रदेश-बिहार का विवाद गंगा के बदलते फ्लो की वजह से
विवादः 62 हजार एकड़ जमीन।
कब सेः 1881 और 1883 के बीच पहले लैंड सर्वे के आधार पर बने मैप्स की वजह से विवाद होता है।
बैकग्राउंडः 100 साल पुराना यह विवाद यूपी के बलिया और बिहार के शाहबाद (अब भोजपुर और रोहताश जिले) में है। जब भी गंगा अपना फ्लो बदलती है, तब नई और बहुत ही उपजाऊ जमीन उभरती है। इसे लेकर नए और हिंसक विवाद होते रहते हैं।
समाधान की कोशिशेंः 1959 में राज्य सरकारों ने केंद्र से मध्यस्थता के लिए कहा था। पूर्व ICS ऑफिसर सीएल त्रिवेदी की सिफारिशों को संसद ने 1970 में मंजूरी दी थी। इसके तहत बिहार से 135 गांव और 50 हजार एकड़ जमीन यूपी को और यूपी के 12 हजार एकड़ जमीन के साथ 39 गांव बिहार को ट्रांसफर करने की सलाह दी थी। पर इस अवॉर्ड ने परेशानी और बढ़ा दी। 1977 के बाद से यूपी ने लैंड रिकॉर्ड्स ट्रांसफर नहीं किए। बिहार ने तो उत्तरप्रदेश से आई जमीन को मान्यता दे दी, पर यूपी ने सीमा पर बिहारी किसानों के अधिकार को स्वीकार नहीं किया।
सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से जारी मैप और शेड्यूल में अनियमितताओं को लेकर विवाद है। मैप नई बॉर्डर को सही दिखाता है पर अटैच्ड शैड्यूल 1881 और 1883 के बीच कराए गए पहले लैंड सर्वे के आधार पर बना है। कुछ साल पहले पटना हाईकोर्ट ने दोनों राज्यों और केंद्र सरकार को अनियमितताओं को दूर करने के निर्देश दिए थे।
मौजूदा स्थितिः लैंड रिकॉर्ड साफ नहीं है। गंगा जब अपना बहाव बदलती है तो नई जमीन उभरती है, जिसे लेकर विवाद होते हैं। प्रशासनिक स्तर पर इसका कोई समाधान नहीं निकला है।
बात फरवरी 2021 की है। कर्नाटक ने कोविड-19 के प्रसार को देखते हुए केरल से आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस पर केरल के सीमावर्ती जिलों में कर्नाटक के फैसले के खिलाफ प्रदर्शन हुए।
विवाद और भी हैं…
- उत्तरप्रदेश-हरियाणाः बिहार की तरह उत्तरप्रदेश का सीमा विवाद हरियाणा से भी है। यहां भी नदियों के रास्ता बदलने पर विवाद होता है। अक्सर जमीनों को लेकर स्थानीय स्तर पर विवाद होते हैं, जिनमें खूनखराबा भी होता है। इन स्थानीय विवादों को निपटाने में राज्यों के प्रयास भी नाकाफी ही साबित होते हैं।
- हिमाचल-लद्दाखः हिमाचल प्रदेश शिमला हिल स्टेट्स और पंजाब हिल स्टेट्स से बना था। हिमाचल की इंटरनेशनल बॉर्डर तिब्बत से लगी है। लद्दाख में शामिल सारचु को लेकर विवाद है। हिमाचल के पर्वतारोहियों के लिए यह आकर्षण का केंद्र है। दोनों राज्य इस पर दावा करते रहे हैं।
- ओडिशा-आंध्रः बॉर्डर इलाके में 63 गांवों में तेलुगु बोलने वाले लोग रहते हैं। आंध्रप्रदेश इस पर अपना दावा करता रहा है। ओडिशा को इस दावे पर आपत्ति है। पर अच्छी बात यह है कि कभी यह विवाद हिंसा तक नहीं पहुंचा है।
- ओडिशा-झारखंडः यह विवाद ओडिशा के सेराइकेला और खरसुआन की पूर्व रियासतों के अधिकार क्षेत्रों को लेकर है। झारखंड के इन क्षेत्रों में ओडिशा की भाषा बोली जाती है। संस्कृति भी ओडिशा से जुड़ी है, पर इलाके झारखंड में हैं।
- ओडिशा-पश्चिम बंगालः ओडिशा के बालासोर और मयूरभंज जिलों के कुछ गांवों में बंगाली आबादी रहती है। इस पर पश्चिम बंगाल दावा करता है, पर कभी इस पर विवाद ने तूल नहीं पकड़ा।
- कर्नाटक-केरलः विवाद केरल के कासरगोड को लेकर है। यहां कन्नड़ बोलने वाले अधिक हैं। फिर भी इसे केरल में रखा गया है। महाजन कमीशन ने भी इसे कर्नाटक में शामिल करने की सिफारिश की थी। पर इस रिपोर्ट पर केंद्र ने कोई फैसला नहीं किया। पिछले साल कोविड-19 को काबू करने के लिए केरल ने अन्य राज्यों की सीमा को बंद किया तो स्टूडेंट्स ने इस सीमा पर जरूर हंगामा किया था, जो कर्नाटक में पढ़ाई करते हैं।
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