जिंदा हैं अफगान की लेडी गवर्नर सलीमा मजारीच तालिबान ने नहीं किया है कैद, मौत के मुंह से निकल ऐसे पहुंचीं अमेरिका
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तालिबान से मुकाबला करने को हथियार उठाने वालीं अफगान की जांबाज लेडी गवर्नर सलीमा मजारी अभी जिंदा हैं और अफगानिस्तान छोड़ चुकी हैं। बताया जा रहा है कि अभी वह अमेरिका में एक अज्ञात स्थान पर रह रही हैं। इससे पहले खबर आई थी कि उन्हें तालिबान ने अपने कब्जे में ले लिया है। मगर ‘द टाइम’ ने पुष्टि की है कि मजारी अभी जिंदा हैं और वह अमेरिका में हैं। उन्हें अफगानिस्तान से निकालने में पत्रकारों ने मदद की है, जिसकी वजह से वह तालिबान को चकमा देने में कामयाब हो पाईं।
‘द टाइम’ ने यह दावा अफगानी पत्रकार जकार्या और दूसरे कनाडाई पत्रकार रॉबिन की रिपोर्ट के आधार पर किया है। ‘द टाइम’ की मानें तो जकार्या अफगानिस्तान में ही थे, मगर निकासी अभियान के दौरान वह पेरिस चले गए। हालांकि, तालिबान और अफगान सरकार के बीच जारी खूनी संघर्ष के दौरान वह सलीमा के संपर्क में थे। उनकी मदद से ही सलीमा सुरक्षित रूप से अफगानिस्तान से निकलने में सफल रहीं।
अफगानिस्तान की सलीमा मजारी बल्ख प्रांत की चारकिंत ज़िले की महिला गर्वनर थीं, जिन्होंने अपनी सेना बनाकर तालिबान का डंटकर मुकाबला किया था। हालांकि, काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद ऐसी खबर आई थी कि उन्हें आतंकी समूहों ने कैद कर लिया। मगर द टाइम ने अब पुष्टि कर दी है कि वह न तो तालिबान की कैद में हैं और नही उनकी मौत हुई है। वह फिलहाल अमेरिका में हैं। अफगानिस्तान मूल की सलीमा माजरी का जन्म 1980 में एक रिफ्यूजी के तौर पर ईरान में हुआ, जब उनका परिवार सोवियत युद्ध से भाग गया था। उनकी पढ़ाई-लिखाई ईरान में ही हुई है। तेहरान विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद उन्होंने दशकों पहले अपने माता-पिता को छोड़कर देश (अफगानिस्तान) जाने का फैसला करने से पहले विश्वविद्यालयों और अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन संगठन में विभिन्न भूमिकाएं निभाईं।
जब बल्ख पर तालिबान के कब्जे की खबर आई तो सलीमा मजारी प्रांतीय गवर्नर मोहम्मद फरहाद अजीमी के कार्यालय में थीं। तभी उन्हें अपने जिले चारकिंट के लड़ाकों और नेताओं से फोन कॉल आए। उन्होंने अपने लड़ाकों को सरेंडर कर देने को कहा। उन्होंने कहा कि अभी लड़ाई जारी रखना हमारे लोगों के हितों के खिलाफ होगा। इसके बाद उन्होंने मोहम्मद फरहाद अज़ीमी के सुझावों पर अमल किया और फिर अपने पति और गार्डों के साथ उज़्बेकिस्तान की सीमा से लगे हेरातन की ओर निकल गईं। पूर्व उपराष्ट्रपति और सरदार अब्दुल रशीद दोस्तम और पूर्व बल्ख गवर्नर और मुजाहिदीन कमांडर अत्ता मोहम्मद नूर सहित कई हाई-प्रोफाइल नेता उनके साथ शामिल हुए।
हालांकि, हेरातन पहुंचने पर उन्हें उज्बेकिस्तान की ओर पार करने की अनुमति नहीं दी गई। अज़ीमी, नूर और अब्दुल रशीद दोस्तम सहित कुछ नेताओं को उज़्बेकिस्तान में प्रवेश करने की अनुमति दी गई, मगर सलीमा को नहीं। तालिबान की हिट लिस्ट में होने के कारण मजारी ने बुर्का पहन रखा था और एक रिश्तेदार के घर में शरण ली थी। दो दिनों तक वहां छिपने के बाद उन्होंने काबुल जाने का फैसला किया मगर वह तालिबान की चौकियों से अच्छी तरह वाकिफ थीं। मगर उन्होंने जोखिम उठाया और अपने पति और रिश्तेदारों के साथ काबुल के लिए रवाना हो गईं।
उन्होंने द टाइम को बताया कि सौभाग्य से हम किसी भी तालिबान लड़ाके द्वारा पहचाने नहीं गए। उन्होंने हमें आसानी से जाने दिया। यह काबुल पर फतह का पहला दिन था और उस दिन तालिबानी जश्न मना रहे थे। मगर मजारी क्योंकि एक हाई-प्रोफाइल शख्सियत थीं और पब्लिकली काबुल एयरपोर्ट पर भी नहीं जा सकती थीं। किस पर भरोसा किया जाए और किस पर नहीं, यह सवाल उनके मन में था। इस तरह से उन्होंने तालिबान की नजरों से बचने के लिए कुछ समय तक एक घर से दूसरे घर में रहकर बिताया। इस दौरान उन्होंने अपने दस्तावेज़ उन मित्रों को भेजे, जिनका अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और नीदरलैंड सहित विदेशी सरकारों से संबंध था।
जिन लोगों को सलीमा ने डॉक्यूमेंट भेजे उनमें पत्रकार जकार्या थे, जो पिछले सप्ताह ही एयरलिफ्ट के जरिए पेरिस पहुंचे थे। जब जकार्या ने उनसे कॉन्टैक्ट किया तो वह सुरक्षित थीं और मजारी ने उन्हें बताया कि वह छिपी हुई हैं। जकार्या ने यह सूचना रॉबिन को पास की और कहा कि वह काबूल में ही हैं। इसके बाद रॉबिन के पार्टनर और कनाडाई फोटोजर्नलिस्ट मैट रिकल ने उन सभी से कॉन्टैक्ट किया जो सलीमा की मदद कर सकता था।
मजारी को हर वक्त डर सता रहा था कि तालिबन कभी उनकी हत्या कर सकता था। मगर उन्होंने इंतजार किया। इस दौरान जकार्या लगातार उनके संपर्क में थे और उनकी निकासी का आश्वासन दिया था। मगर आखिरी वक्त में उन्हें पाकिस्तान के दखल का डर सता रहा था। 23 अगस्त को उन्हें अफगान नंबर से एक मैसेज आया, जिसमें दावा किया गया कि वह अमेरिकी रेस्यू ऑपरेशन सेल से है। खौफ और चिंता के बीच ऐसे ही सलीमा छिपी रहीं और अंत में 25 सितंबर को वह अमेरिका के निकासी विमान में सवार होकर अफगान से निकलने में सफल रहीं।
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