जातिगत जनगणना का सच बेंगलुरू से विशेष रिपोर्ट: कर्नाटक मॉडल; अपने खर्च पर जातियों की गणना की 192 नई जातियों ने राजनीति बिगाड़ी, सरकार चली गई
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बेंगलुरू7 मिनट पहलेलेखक: बेंगलुरू से भास्कर के लिए विनय माधव
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सिद्दारमैया चाहते थे अहिंद (अल्पसंख्यक, पिछड़ा, दलित) एजेंडे को आगे बढ़ाना…पर संभव न हो सका।
- तब- आरक्षण के लिए जिस जाति को जो जरूरी लगा, किया… 80 जातियां ऐसी निकलीं जिनकी संख्या 10 से भी कम थीं
- अब- केंद्र के दोबारा इनकार के बाद अगर अब जातिगत गणना करवानी है तो बिहार सरकार को अपने ही खर्च पर करवानी होगी
केंद्र सरकार कह चुकी कि 2021 की जनगणना में जातियों की गणना नहीं होगी, लेकिन बिहार में सत्ता और विपक्ष जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं। गेंद अब बिहार सरकार के पाले में है। कर्नाटक सरकार ने अपने खर्च पर जातिगत जनगणना करवाई थी। अब यही मांग बिहार में उठ रही है। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना का फैसला किया। इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदलकर ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे कर दिया।
जनगणना फार्म में ही जाति का कॉलम जोड़ दिया गया था। इस पर 150 करोड़ खर्च हुए थे। 2017 के अंत में कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी। शुरुआत में लग रहा था कि अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलितों की गिनती राज्य का सियासी गणित बदल देगी। सिद्धरमैया की ‘अहिंद’ नाम से प्रसिद्ध सोशल इंजीनियरिंग के लिए यह क्रांतिकारी परिणाम देगा। जनगणना के आंकड़ों से उत्साहित सिद्धारमैया ने 2018 के चुनावों के दौरान अपने ‘अहिंद’ एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश की।
सामाजिक समीकरण का यह बदलाव कांग्रेस के लिए सुखद नहीं रहा। पार्टी ने सत्ता विरोधी ध्रुवीकरण के कारण बहुमत खो दिया। कांग्रेस 2013 में जीती सीटों में से एक तिहाई सीटें हार गई। ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे के नाम पर शुरू हुई जातिगत जनगणना की कवायद विवादों में घिर गई। अपने समुदाय को ओबीसी या एससी/एसटी में शामिल कराने के लिए जोर दे रहे लोगों के लिए यह सर्वे बड़ा मौका बन गया। अधिकतर ने उपजाति का नाम जाति के कॉलम में दर्ज कराए।
नतीजा-कर्नाटक में अचानक 192 से अधिक नई जातियां सामने आ गईं। लगभग 80 नई जातियां तो ऐसी थीं, जिनकी जनसंख्या 10 से भी कम थी। एक तरफ ओबीसी की संख्या में भारी वृद्धि हो गई तो दूसरी तरफ लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रमुख समुदाय के लोगों की संख्या घट गई। सिद्धारमैया ने यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की।
हालांकि, इस गणना की प्रतियां राजनेताओं को अपने जिले का जातिगत समीकरण समझने के लिए बाजार में मिलती रहीं। और तो और, जनगणना कराने वाली सिद्धारमैया सरकार ने भी इसे स्वीकार नहीं किया। उसके बाद बनी जेडी(एस)-कांग्रेस गठबंधन सरकार व वर्तमान भाजपा सरकार ने भी 150 करोड़ खर्च कर बनी इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में छोड़ दिया।
क्या है अहिंद
कन्नड़ में अल्पसंख्यातारू (अल्पसंख्यक),हिन्दुलिदावरू (बैकवर्ड क्लास) और दलितारू (दलित)…इन जातियों के पहले अक्षर को जोड़कर तैयार किया गया पॉलिटिकल कम्बिनेशन। इसका सबसे पहले प्रयोग देवराज अर्स ने किया था, उसे ही सिद्दारमैया ने नए संदर्भों में अपनाना चाहा था।
6.3 करोड़ आबादी में 5.98 करोड़ गणना में शामिल हुए
32 लाख लोग शामिल नहीं
‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे जब शुरू हुआ तब कर्नाटक की जनसंख्या 6.3 करोड़ थी, जिनमें से 5.98 करोड़ की आबादी ने जनगणना प्रक्रिया में भाग लिया। शेष 32 लाख की आबादी इससे दूर रही।
(इसके अलावा, ओबीसी मानी जाने वाली कुरुबा 7 प्रतिशत है)
जातियों के प्रतिशत को जनसंख्या में बदलें तो 1.08 करोड़ अनुसूचित जाति के लोग हैं। 70 लाख मुसलमान, 65 लाख लिंगायत, 60 लाख वोक्कालिगा और 45 लाख कुरुबा समुदाय की संख्या है। अन्य जातियों में इडिगा, मछुआरे और विश्वकर्मा समुदाय 15-15 लाख, ब्राह्मण-14 लाख, ईसाई, यादव और उप्परा (10 लाख प्रत्येक) और अन्य छोटे समुदाय शामिल हैं।
जातीय जनगणना : बिहार जैसा ही रहा है महाराष्ट्र का स्टैंड
- महाराष्ट्र की विधायिका ने 8 फरवरी को सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर केंद्र से जातिगत जनगणना कराने की मांग की थी। जवाब में केंद्र सरकार ने साफ कहा कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। रजिस्ट्रार जनरल ने कहा था कि केंद्र की ओबीसी की सूची में 6285 जातियां दर्ज हैं। राज्यों की सूची को भी जोड़ दें तो यह संख्या 7200 हो जाती है। चूंकि आज बहुतायत लोग संप्रदाय, गोत्र, उप-जाति व जाति का नाम बतौर सरनेम लिखते हैं, इनके उच्चारण में भी समानता है… इससे जातियों के वर्गीकरण में कई प्रकार की समस्या आ सकती है। इसलिए जातियों की गणना को 2021 की जनगणना का हिस्सा नहीं बनाया गया है।
- 1979 में केंद्र की जनता सरकार ने बीपी मंडल कमीशन बनाया जिसने 1931 की जनगणना के आधार पर पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52% बताई। कमीशन की अनुशंसा 1990 में लागू हुई। 2010 में लोकसभा में जातीय जनगणना की जोरदार मांग उठी तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने अलग से सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना कराई। हालांकि इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।
- जनगणना में सिर्फ दलितों और आदिवासियों की गणना होती है। दलित व आदिवासियों की गणना 1951 से लगातार हो रही है।
…और बिहार में
4 बातें, जो जाति गणना को जरूरी बताने वाले कहते हैं
1.सबसे अहम दावा: विकास सही जगह पहुंचे – जातीय जनगणना ही पिछड़े-अति पिछड़े वर्ग के लोगों की शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को बताएगी। और इन सबके आकलन की बदौलत ही उनकी बेहतरी के लिए मुनासिब नीति निर्धारण होगा।
2. ओबीसी को पूर्ण न्याय – पिछड़े वर्ग की अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है। जातीय जनगणना के बूते ही ओबीसी को पूर्ण न्याय मिलेगा। जब तक जातियों की वास्तविक संख्या पता नहीं चलेगी, तब तक योजनाएं कैसे बनेंगी?
3. कमजोर वर्ग को मदद – एससी, एसटी के अलावा भी अन्य कमजोर वर्ग हैं, जिनकी सही संख्या और हालात की जानकारी के बाद ही उनके लिए वास्तविक कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी। और तभी यह असरदार होगा।
4. विडंबना: जातियों के दावे संख्या से 3 गुना – जातीय जनगणना, 1931 के बाद नहीं हुई। अभी आबादी को लेकर सभी तबकों (जातियों) के जो दावे होते हैं, उसे जोड़ लिया जाए, तो हिन्दुस्तान की आबादी तीन गुनी ज्यादा हो जाती है।
राजनीति की धुरी पलट सकता है ये मुद्दा
जाति जनगणना की मांग पूरी हुई तो जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी…नारा स्वत: राजनीति के केंद्र में आ जाएगा। जाहिर तौर पर इसका अंतिम मकसद उस मांग को हासिल करना होगा, जो आरक्षण के मौजूदा दायरे को विस्तारित करे और उसे समानुपातिक बनाए।
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