ऑपरेशन खुकरी: कारगिल युद्ध के 1 साल बाद सिएरा लियोन की लड़ाई में भारतीय जवानों ने घास की रोटियां खाईं, लेकिन विद्रोहियों के सामने हथियार नहीं डाले

ऑपरेशन खुकरी: कारगिल युद्ध के 1 साल बाद सिएरा लियोन की लड़ाई में भारतीय जवानों ने घास की रोटियां खाईं, लेकिन विद्रोहियों के सामने हथियार नहीं डाले

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  • Indian Soldiers Ate Loaves Of Grass In The Battle Of Sierra Leone, 1 Year After The Kargil War, But Did Not Lay Down Arms In Front Of The Rebels

पटनाएक घंटा पहले

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'ऑपरेशन खुकरी' उस युद्ध का आंखों देखा किस्सा है, ऑपरेशन जवानों की बहादुरी की सच्ची और अनकही कहानी है जिसे लिखा है बिहार-झारखंड सब एरिया के जनरल अफसर कमांडिंग मेजर जनरल राजपाल पूनिया और उनकी बेटी दामिनी पूनिया ने। - Dainik Bhaskar

‘ऑपरेशन खुकरी’ उस युद्ध का आंखों देखा किस्सा है, ऑपरेशन जवानों की बहादुरी की सच्ची और अनकही कहानी है जिसे लिखा है बिहार-झारखंड सब एरिया के जनरल अफसर कमांडिंग मेजर जनरल राजपाल पूनिया और उनकी बेटी दामिनी पूनिया ने।

  • 21 साल पहले विदेशी युद्ध भूमि पर भारतीय सेना की बहादुरी की सच्ची अनकही कहानी

ऑपरेशन खुकरी… यही नाम था उस ऑपरेशन का जिसे पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लियोन की धरती पर आज से 21 साल पहले 13 जुलाई को भारतीय सेना ने सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। कारगिल युद्ध के साल भर बाद हुआ यह ऑपरेशन जवानों की बहादुरी की सच्ची और अनकही कहानी है जिसे लिखा है बिहार-झारखंड सब एरिया के जनरल अफसर कमांडिंग मेजर जनरल राजपाल पूनिया और उनकी बेटी दामिनी पूनिया ने।

पूनिया, राजस्थान के चुरू के मूल निवासी हैं और वही इस ऑरेशन में 58वीं गोरखा राइफल्स के कमांडिंग अफसर थे। ‘ऑपरेशन खुकरी’ उस युद्ध का आंखों देखा किस्सा है। इस ऑपरेशन में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के हिस्सा रहे भारतीय जवानों को सिएरा लियोन के विद्रोही गुट रिवोल्यूशनरी युनाइटेड फ्रंट (आरयूएफ) ने जंगलों में घेर लिया था।

पूनिया के कमांड वाली जवानों की टुकड़ी ने आरयूएफ के विद्रोहियों को जंगल वारफेयर में न सिर्फ परास्त किया बल्कि घेराबंदी तोड़ 233 भारतीय जवान सुरक्षित वतन लौट आए। 15 जुलाई को पटना में बिहार के राज्यपाल फागू चौहान और पश्चिम पश्मिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनकड़ पुस्तक का विमोचन करेंगे।

15 जुलाई को बिहार व प.बंगाल के गवर्नर करेंगे जीओसी मेजर जनरल राजपाल पूनिया की पुस्तक का विमोचन

2002 में युद्ध सेवा मेडल से सम्मानित पूनिया कहते हैं कि इतनी विकट परिस्थितियों में फंसे रहने के बावजूद वीर सैनिकों ने देश की शान से समझौता नहीं किया और तिरंगे का मान बनाए रखा। हमारे सैनिक किन हालातों में रहे और उनपर क्या बीती यह किसी बुरे सपने से कम नहीं। पीढ़ियों के लिए उनकी वीरता की कहानी को यादगार बनाना मैंने अपना कर्तव्य समझा।।

लोग जान सकेंगे कि जवानों की जिंदगी के पन्ने युद्ध भूमि में कैसे उलटते-पलटते हैं। घर पर बच्चे कैसे पिता का इंतजार करते हैं। हमारी टुकड़ी पर 1 मई 2000 को विद्रोहियों ने मकेनी इलाके में हमला कर दिया। संपर्क नहीं होने की वजह से कैलाहुन में तैनात टुकड़ी को इसकी ख़बर नहीं लगी। अगले दिन वहां सेना के कुछ कमांडरों की विद्रोहियों के नेताओं के साथ बैठक थी।

उसी दौरान विद्रोहियों ने सैन्य कमांडरों को बंधक बना लिया और पूरे इलाके में कब्जा कर लिया। दस दिन बाद जनता और शांति सेना के दबाव में विद्रोहियों ने चुनिंदा अधिकारियों को वापस बेस पर जाने की इजाजत दी और कुछ बंधकों को भी रिहा किया गया। लेकिन हालात बिगड़ते जा रहे थे, विद्रोहियों ने 500 केन्याई शांति सैनिकों के हथियार छीन लिए।

भारतीय सैन्य दल ने मोर्चा संभाल विद्रोहियों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया और केन्याई लोगों को बचाया। लेकिन कैलाहुन में हालत ज्यादा बिगड़ गई थी। वहां गोरखा राइफल्स की दो कंपनियां सैकड़ों आरयूएफ विद्रोहियों के बीच अपने बेस में घिरी गई थीं। विद्रोहियों ने सैनिकों को बंधक बना लिया। और हथियार सौपने का दबाव डालने लगे।

पश्चिमी अफ्रीका के भाप छोड़ते ट्रॉपिकल जंगल में बंधक बने सैनिक अपने टेंट में घिरे हुए थे। रसद खत्म होने पर घास की रोटियां खाने को मजबूर हो गए। अनिश्चितता के माहौल और दुनिया से कटे रहने के बावजूद भारतीय सैनिकों ने हौसला बनाए रखा। विद्रोहियों के सामने हथियार नहीं डाला। भारतीय सेना ने ऑपरेशन खुकरी को अंजाम देने का निर्णय लिया।

अन्य देशों ने मदद देने से इंकार कर दिया। तब भारतीय सेना ने अपने दम पर 30 घंटे में इस ऑपरेशन को पूरा करने का प्लान बनाया। पूरे इलाके में भारी बारिश हो रही थी। ऑपरेशन शुरू करना खतरे से खाली नहीं था। दस घंटे बाद बारिश थमी तो 15 जुलाई को ऑपरेशन शुरू हुआ।

विद्रोहियों को इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि भारतीय सेना उनके घर में घुसकर हमला करेगी। इसमें कई विद्रोही मारे गए और ऑपेरशन सफल हुआ। भारतीय सेना का एक हवलदार शहीद हुआ और कुछ घायल भी हुए। मेजर जनरल पूनिया की यह पुस्तक उसी शहीद हवलदार कृष्ण कुमार को समर्पित है।

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